आपराधिक प्रक्रिया संहिता धारा १२५ अंतर्गत अभ्यस्त व्यभिचारिणी पत्नी को खर्चा नामंज़ूरी

Maintenance u/s CrPC 125 Denied to Wife Living in Adultery

आपराधिक प्रक्रिया संहिता धारा १२५(४) (प्रलेख मात्र)

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धारा १२५(४), अर्थात धारा १२५ ,उपधारा ४ का प्रलेख निम्नानुसार है:–

“(४) ऐसी किसी भी पत्नी को अपने पति से [नियमित गुज़ारा भत्ता अथवा अंतरिम भत्ता अथवा मुकद्दमे का खर्चा, इन में जो भी प्रसंग उपयुक्त हो] लेने का अधिकार नहीं होगा जो कि व्यभिचार में लीन हो अथवा अपने पति से बिना पर्याप्त कारण के अलग रह रही हो अथवा अपने पति से आपसी सहमति से अलग रह रही हो।”

(१. खंड संख्या २, अधिनियम संख्या ५०, ईस्वी सन २००१ द्वारा ―गुज़ारा भत्ता‖ से स्थानापन्न। (२४/०९/२००१ से लागू ।))


क्या व्यभिचार रत पत्नी हेतु आपराधिक प्रक्रिया संहिता धारा १२५ आधीन नियमित खर्चा घोषित किया जा सकता है?

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जैसा कि उपरोक्त विधान खंड अनुवाद से समझा जा सकता है, कुछ अन्य प्रकार की पत्नियों सहित वे पत्नियां जो की व्यभिचार में लिप्त होती हैं ("जो कि व्यभिचार में लीन हो") आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा १२५ के अंतर्गत नियमित खर्चे की पात्र नहीं होती हैं। अतैव ऐसी पत्नियों के पक्ष में उक्त धारा के अधीन गुज़ारा भत्ता घोषित नहीं किया जा सकता है।

क्या "व्यभिचार में लीन" होना / "व्यभिचार रत" होना व्यभिचार कर्म करने का पर्याय है?

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"व्यभिचार रत" होना व्यभिचार कर्म करने का पर्याय नहीं है, अपितु ये दोनों चीज़ें एक दुसरे से बहुत मिलती जुलती हैं। यहाँ हमें इस बात को ध्यान में लेना है कि प्रत्येक व्यभिचार कर्म को व्यभिचार कहना सही है किन्तु प्रत्येक व्यभिचार कर्म को "व्यभिचार में लिप्त होना" नहीं कहा जा सकता। यदि कोई व्यक्ति केवल एक बार यौन छल करता है और फिर कभी ऐसे छल को दोहराता नहीं है तो उस यौन छल को व्यभिचार कहना सही है लेकिन उसे व्यभिचार रत होने की संज्ञा नहीं दी जा सकती है। जहाँ तक "व्यभिचार रत" होने की उपाधि का सवाल है, यह पदवी व्यभिचार के अनेक प्रकरणों को कर गुज़रने वाली पत्नी / कर गुज़रने वाले व्यक्ति को ही दी जा सकती है। अतैव "व्यभिचार रत" होना वृहद विषय वस्तु "व्यभिचार" की एक छोटी क़िस्म है, लेकिन साथ ही साथ एकाकी व्यभिचार से भिन्न है। सरल एवं सपाट भाषा में किसी पत्नी का व्यभिचार रत होना उस के किसी पर-पुरुष के साथ चालू यौन सम्बन्ध स्थापित करने को कहा जाता है।

क्या हिन्दू विवाह अधिनियम आधीन कार्रवाई में पत्नी द्वारा व्यभिचार साबित कर देना पति को आपराधिक प्रक्रिया संहिता धारा १२५ आधीन कार्रवाई में अनुकूल आदेश प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है?

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सबसे पहले यह बात गौर करने लायक है कि "व्यभिचार" शब्द को हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा १३ में कहीं भी प्रयोग नहीं किया गया है। वरन, "व्यभिचार" के बजाय वाक्यांश "पति / पत्नी के अतिरिक्त किसी और व्यक्ति के साथ स्वैच्छिक यौन सम्बन्ध" का प्रयोग किया गया है।

इस टिप्पणी के मद्दे नज़र यह कहने में कोई भी त्रुटि नहीं कि व्यभिचार (अर्थात विवाहेतर यौन सम्बन्ध) के किसी एकाकी कृत्य का प्रमाण हिन्दू विवाह अधिनियम के अंतर्गत दाम्पत्य-सम्बन्ध विच्छेद आदेश प्राप्त करने हेतु पर्याप्त है। यहाँ विधिवत वांछित प्रमाण की विधिवत वांछित न्यूनतम गुणवत्ता के विवरण में जाना आवश्यक नहीं है।

जहां तक आपराधिक प्रक्रिया संहिता धारा १२५ का सवाल है, यह सत्य है कि इस में "व्यभिचार" शब्द का प्रयोग किया गया है, लेकिन यहाँ व्यभिचार को "में रह रही" वाक्यखंड के साथ जोड़ के प्रयोग किया गया है। इसका अर्थ यह है कि यहाँ पर व्यभिचार-कृत्य की अपेक्षा बार बार किये जाने वाले व्यभिचार की बात की गयी है।

अतैव रखरखाव के मुक़द्दमे का सामना करने वाला पति यदि पत्नी द्वारा किये गए व्यभिचार की बिना पर गुज़ारा भत्ता आदेश से बचना चाहता है, तो उसे यह साबित करना पड़ेगा कि उस पर मुक़द्दमा डालने वाली स्त्री अभ्यस्त व्यभिचारिणी है, अर्थात वह किसी पराये मर्द के साथ यौन घनिष्ठता जैसे वीभत्स अपितु गुप्त परिवेश में जीवन व्यतीत कर रही है। यौन घनिष्ठत्ता को वीभत्स बताना इस बात का द्योतक कतई नहीं है कि लेखक-अनुवादक एकाकी व्यभिचार कृत्य को अपने आप में वीभत्स नहीं मानता है।

बहरहाल, हिन्दू विवाह अधिनियम आधीन तलाक सम्बंधित विभिन्न यथोचित मुक़द्दमों में पत्नी के व्यभिचार से सम्बंधित प्रमाणादि विभिन्न प्रकार के होना लाज़मी है। कुछ प्रकरणों में प्रमाणादि में व्यभिचार के एक प्रसंग का ज़िक्र प्रस्तुत किया जायेगा, और अन्य प्रकरणों में एक से अधिक व्यभिचार प्रसंगों का उल्लेख किया जायेगा। पहली श्रेणी के प्रमाणों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकेगा कि उक्त पत्नी व्यभिचार रत है, और दूसरी श्रेणी के प्रमाणों के आधार पर ऐसा कहना ज़रूरी हो जायेगा। इस वजह से हिन्दू विवाह अधिनियम मुक़द्दमों में प्राप्त किये गए निर्णयों की आपराधिक प्रक्रिया संहिता १२५ मुक़द्दमों में उपयुक्तता के बारे में कोई नियम घोषित करना संभव नहीं है।

व्यभिचार प्रकरणों में विवाह विच्छेद पूर्व एवं विवाह विच्छेद पश्चात गुज़ारा भत्ता नामंज़ूरी की गुंज़ाइश का वर्णन करने वाले विभिन्न उच्च न्यायालयों के फ़ैसले।

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विभिन्न उच्च न्यायालयों के निम्नलिखित निर्णय आपराधिक प्रक्रिया संहिता १२५ के मुक़द्दमों में पत्नी के व्यभिचार पर आधारित गुज़ारा भत्ता नामंज़ूरी के विषय की व्याख्या करते हैं। ऐसे मुक़द्दमे दो प्रकार के होते हैं, पहला वह जिन में पत्नी को व्यभिचार लीन पाया गया है, और दूसरा वह जिन में पति ने पहले ही पत्नी द्वारा व्यभिचार के आधार पर किसी दूसरी अदालत से तलाक का निर्णय प्राप्त कर लिया है।


पटना उच्च न्यायालय

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श्यामदेव प्रसाद बनाम बिहार राज्य

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मुक़द्दमेबाज़ों को छोड़ बाक़ी सारी जनता के स्वार्थपूर्ण दृष्टि कोण से यदि देखा जाये तो श्यामदेव प्रसाद में निर्धारित सबसे महत्वपूर्ण कानूनी प्रश्न यह था कि क्या (अब जो भूतपूर्व बन चुकी थी उस) पत्नी के व्यभिचार पर आधारित विवाह-विच्छेद हुक्मनामे का हाथ में होना क्या धारा १२५ मुक़द्दमा पीड़ित पति को खर्चा नामंज़ूरी आदेश दिलाने हेतु पर्याप्त है (अथवा नहीं है)? पटना उच्च न्यायालय की पहली महिला न्यायाधीश इन्दु प्रभा सिंह ने निचली अदालत उस आदेश को निरस्त कर के इस प्रश्न का समर्थनात्मक उत्तर दिया, जिस आदेश में उस (निचली) अदालत ने एक प्रमाणित व्यभिचारिणी पत्नी हेतु खर्चा बहाल किया था।

पटना उच्च न्यायालय
समकक्ष उद्धरण: 2001 Cri LJ 2818;
श्यामदेव प्रसाद बनाम बिहार राज्य एवं एक अन्य
निर्णय तिथि: १०/०४/२०००
पटना उच्च न्यायालय के एकाकी न्यायाधीश द्वारा निर्णीत
न्यायमूर्ति इन्दु प्रभा सिंह

निर्धारित हुआ (निर्णय के १०वें अनुच्छेद में):
इन दो उप-वर्गों (आसीन अधिकारी ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता धारा १२५ की उपधाराओं (४) और (५) के सन्दर्भ में यहाँ यह उल्लेख किया - मनीष उदार) का एक पठन स्पष्ट रूप से यह दिखाएगा कि यदि किसी मामले में यह पाया जाता है कि पत्नी व्यभिचार-रत है तो वह उस मामले में किसी भी गुज़ारा खर्चे की हकदार नहीं मानी जाएगी। यह भी प्रकट होता है (धारा १२५ सीआरपीसी के उप-खंड (५ ) के संदर्भ में पीठासीन अधिकारी द्वारा यहां यह उल्लेख किया गया है - मनीष उदार) कि भले ही पत्नी के पक्ष में भरण-पोषण का आदेश पारित किया गया हो, जिस क्षण यह साबित हो जाता है कि वह व्यभिचार लीन है, उसी क्षण रखरखाव आदेश को रद्द करना आवश्यक हो जाता है।

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के १२वें अनुच्छेद में)
"इस अनुच्छेद में माननीय ज्ञानी अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (वास्तव में, न्यायिक मजिस्ट्रेट - मनीष उदार ) वर्तमान याचिकाकर्ता के साक्ष्य को ध्यान में रखने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि वर्तमान विपरीत पार्टी नंबर २ किसी बहारन राम के साथ रह रही थी और सन १९८८ से उसने उसके साथ यौन संबंध बना रखा था, जिसके परिणामस्वरूप उसे एक बेटा पैदा हुआ था। इस प्रकार, तलाक के मामले में माननीय ज्ञानी अदालत ने पाया था कि वह व्यभिचार में लीन थी। यह खोज दीवानी अदालत द्वारा दर्ज़ की गई है।” (महत्त्व सन्निविष्ट)

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के १३वें अनुच्छेद में):
"इस संबंध में मेरा ध्यान संहिता की धारा १२७ की उप-धारा (२) की ओर आकर्षित किया गया है जो पहले ही ऊपर संज्ञान में ली जा चुकी है। इस उप-खंड के अनुसार गुज़ारा खर्चा बहाल करने वाले आदेश को किसी प्राधिकृत दीवानी अदालत के किसी भी ऐसे निर्णय के परिणामस्वरूप रद्द किया जा सकता है जिस में यह पाया गया हो कि विपक्षी पार्टी नंबर २ किसी बहारन राम के साथ व्यभिचार-रत है।" (यहाँ दूसरे वाक्य में एक त्रुटि —टाइपोग्राफी त्रुटि अथवा अन्य त्रुटि, मालूम नहीं कौनसी— आ गयी है। प्रस्तुत वाक्य का सही संस्करण निम्नानुसार लिखा जाएगा— "इस उप-खंड के अनुसार धारा १२५ सी.आर.पी.सी तहत गुज़ारा खर्चा बहाल करने वाले किसी भी आदेश को ऐसी अवस्था में निरस्त करना ज़रूरी हो जाता है यदि कोई सक्षम अदालत ऐसी खोज दर्ज़ करती है कि सम्बद्ध पत्नी अभ्यस्त व्यभिचारिणी है। प्रस्तुत प्रकरण में पाया गया कि विपक्षी पार्टी नंबर २ किसी बहारन राम के साथ व्यभिचार रत है।" - मनीष उदार)

अंततः निर्धारित (निर्णय के १४वें एवं अंतिम अनुच्छेद में ):
"फलस्वरूप यह संशोधन याचिका पारित की जाती है और माननीय ज्ञानी अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश अमान्य माना जाता है।"

आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय

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पोला वेंकटेश्वरलू बनाम पोला लक्ष्मी देवी एवं अन्य

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उपरोक्त मामले से मिलता जुलता एक मामला आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में २००४ द्वारा निर्णीत हुआ था।

आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय
पोला वेंकटेश्वरलू बनाम पोला लक्ष्मी देवी एवं अन्य
निर्णय तिथि: ०७/१०/२००४
आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के एकाकी न्यायाधीश द्वारा निर्णीत
रेड्डी, बी. सेशसायना (न्यायाधीश)

निर्धारित हुआ (निर्णय के ६ठे अनुच्छेद में):
"जब तक M.C.No.294 (1994) में पारित हुक्मनामा बना रहता है तब तक एकतरफ़ा हुक्मनामे और प्रतियोगित हुक्मनामे के बीच कोई भावभेद नहीं किया जा सकता है। यह माना जाएगा कि याचिकाकर्ता ने प्रथम प्रतिवादिनी-पत्नी के अभ्यस्त व्यभिचारिणी होने के आधार पर दांपत्य सम्बन्ध समाप्ति आदेश लिया है।" (महत्त्व सन्निविष्ट)

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के ६ठे अनुच्छेद में ही):
आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा १२५(४) के अनुसार पहली प्रतिवादी-पत्नी को याचिकाकर्ता-पति से कोई भी भत्ता प्राप्त करने का अधिकार नहीं है क्योंकि उसे उसके अभ्यस्त व्यभिचारिणी होने के आधार पर तलाक़ मिला है।"

मद्रास उच्च न्यायालय

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म. चिन्ना करुप्पासामी बनाम कनिमोड़ी

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मद्रास उच्च न्यायालय
आपराधिक संशोधन प्रकरण (मदुरै) संख्या १४२ (२०१२) (मदुरै पीठ)
म. चिन्ना करुप्पासामी बनाम कनिमोड़ी
निर्णय तिथि: १६ जुलाई २०१५
मद्रास उच्च न्यायालय के एकाकी न्यायाधीश द्वारा निर्णीत
एस. नागामुत्थु (न्यायाधीश)

पति - जो कि प्रस्तुत प्रकरण में याचिकाकर्ता था- ने अपने तलाक़ मुक़द्दमे में यह आरोप लगाने के बाद कि पत्नी ने किसी और पुरुष के साथ रहना शुरू कर दिया था, पत्नी से व्यभिचार के आधार पर तलाक़ ले लिया था। अदालत ने प्रस्तुत प्रकरण के निर्णय में टिप्पणी दी कि, "याचिकाकर्ता ने इल्ज़ाम लगाया कि पत्नी विवाहपूर्व भी भटकी हुई जीवनशैली व्यतीत कर रही थी, जिसे उसने विवाह पश्चात जारी रखा। संक्षेप में, याचिकाकर्ता के अनुसार प्रतिवादिनी अभ्यस्त व्यभिचारिणी थी। इस बुनियाद पे याचिकाकर्ता ने तलाक़ मांगते हुए परिवार न्यायालय मदुरै समक्ष हिन्दू विवाह मूल याचिका संख्या ५७१(२००९) दायर की।" (महत्त्व सन्निविष्ट)

साथ ही टिप्पणी हुई (निर्णय के ५वें अनुच्छेद में):
"रखरखाव प्रकरण के मुक़द्दमे के प्रतीक्षाकाल में नागर न्यायालय ने हिन्दू विवाह मूल याचिका संख्या ५७१(२००९) में १२/०३/२०१० को फ़रमान ए तलाक़ मंज़ूर कर दिया। (महत्त्व सन्निविष्ट)

निर्धारित हुआ (निर्णय के १३वें अनुच्छेद में):
"...अगर पत्नी अपने पूर्व पति से फ़रमान ए तलाक़ के जारी होने के बाद भी भरण पोषण का दावा करने का अधिकार बरक़रार रखना चाहती है, तो उससे वैवाहिक संबंधों की समाप्ति के बाद भी वैसा ही अनुशासन बनाए रखने की अपेक्षा की जाती है, जैसा अनुशासन बनाये रखने कीअपेक्षा उससे उसके वैवाहिक संबंधों के अस्तित्व के दौरान की जाती थी।"

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के १४वें अनुच्छेद में):
"चूंकि पुरुष अपनी तलाकशुदा पत्नी के रखरखाव के दायित्व का वहन करता है, इसी लिए महिला भी इस दायित्व का वहन करती है कि वह किसी अन्य पुरुष के साथ संबंध में न रहे। ...यदि वह किसी अन्य पुरुष के साथ संबंध में रहना चाहती है और तदोपरांत वास्तव में ऐसा करना शुरू कर देती है, तो वह उस पुरुष विशेष से भरण पोषण की हकदार हो सकती है, पूर्व पति से नहीं।" (महत्त्व सन्निविष्ट)

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के १६वें अनुच्छेद में):
"लेकिन, उक्त निर्णय (अर्थात रोहताश सिंह बनाम रामेन्द्री और अन्य (AIR 2000 SC 952) - मनीष उदार) को (इस हद तक) सामान्यीकृत नहीं किया जा सकता है कि वह व्यभिचार-रत तलाक़शुदा पत्नी के मामले पर भी लागू हो सके। ...जहां तक व्यभिचार का प्रश्न है, मेरे सुविचारित मतानुसार उपरोक्त निर्णय (यानी वही निर्णय, अर्थात् रोहताश सिंह बनाम रामेन्द्री) को लागू नहीं किया जा सकता, क्योंकि तलाक़ के फ़रमान के बाद भी तलाकशुदा पत्नी किसी अन्य पुरुष के साथ रिश्ते में न रहने के दायित्व का वहन करती है।"

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के १७वें अनुच्छेद में):
"वह (अर्थात श्रीमती वनमाला बनाम श्री एचएम रंगनाथ भट्टा (1995 एससीसी (5) 299) -मनीष उदार) एक ऐसा मामला था, जहां हिंदू विवाह अधिनियम १९५५ की धारा १३(बी) के तहत आपसी सहमति से दाम्पत्य सम्बन्ध समाप्ति के लिए एक न्यायिक आज्ञप्ति प्राप्त की गई थी। ...यह निर्णय भी उसके व्यभिचार रत होने पर (अर्थात उसके (प्रतिवादी -पत्नी के) व्यभिचार रत होने के सन्दर्भ में - मनीष उदार) लागू नहीं है।" (महत्त्व सन्निविष्ट)

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के १८वें अनुच्छेद में):
"मान लीजिए, व्यभिचार रत होने के आधार पर तलाक़ के लिए एक हुक्मनामा मंज़ूर किया जाता है, तो क्या यह कहा जा सकता है कि विवाह सम्बन्ध के अस्तित्व के दौरान जिस अयोग्यता की वह धारक थी, उक्त अयोग्यता का अस्तित्व फ़रमान ए तलाक़ से समाप्त हो जाएगा? इस सवाल का विवेकपूर्ण जवाब एक जोरदार "नहीं" होगा। पत्नी के व्यभिचारपूर्ण जीवन को साबित करने के उपरान्त पति द्वारा तलाक के लिए प्राप्त आज्ञप्ति उसे (पत्नी को) अवैध संबंध पुनर्स्थापित करने का और रखरखाव के अधिकार को पुनर्जीवित करने का लाइसेंस नहीं दे सकती है।"

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के २२वें अनुच्छेद में):
"भारतीय साक्ष्य अधिनियम १८७२ की धारा ४१ के मद्देनजर यदि विवाह विच्छेद की डिक्री व्यभिचार के आधार पर दे दी जाती है, तो वर्तमान मामले में व्यभिचार के मुद्दे को तय करने के लिए ऐसी अदालती खोज प्रासंगिक (हो जाती) है। जब पीड़ित पक्षकार द्वारा उसे (फ़रमान ए तलाक़ को) चुनौती नहीं दी गई है तो (ऐसी अवस्था में) यह अदालत नागर न्यायालय द्वारा दिए गए तलाक़ के उक्त फ़रमान पर अपील में नहीं बैठ सकती है। प्रतियोगित आज्ञप्ति और अप्रतियोगित आज्ञप्ति के बीच कोई अंतर नहीं हो सकता है, क्योंकि प्रतियोगित आज्ञप्ति की तरह ही एक-पक्षीय आज्ञप्ति भी पर्याप्त सबूत के माध्यम से किए गए दावे के प्रमाण पर पारित डिक्री होती है।" (महत्त्व सन्निविष्ट)

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के २२वें अनुच्छेद में):
"प्रस्तुत प्रकरण में, अतैव, इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता है कि याचिकाकर्ता के पक्ष में नागर न्यायालय द्वारा प्रदान विवाह-सम्बन्ध-समाप्ति आज्ञप्ति इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि प्रतिवादिनी व्यभिचार रत थी।"

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के २२वें अनुच्छेद में):
"...मैं मानता हूं कि पारिवारिक न्यायालय द्वारा प्रदान डिक्री के अलावा, स्वीकृत मौखिक साक्ष्य स्पष्ट रूप से यह साबित करते हैं कि प्रतिवादीनी व्यभिचार रत है और इस प्रकार, वह याचिकाकर्ता से रखरखाव का दावा करने हेतु अयोग्यता से पीड़ित है (अयोग्य है)।" (महत्त्व सन्निविष्ट)

के पूवालागन बनाम जे अरुणा देवी

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मद्रास उच्च न्यायालय
आपराधिक संशोधन प्रकरण (मदुरै) संख्या २१९(२०१३) (मदुरै पीठ)
के पूवालागन बनाम जे अरुणा देवी
निर्णय तिथि: २७ अक्तूबर २०१५
मद्रास उच्च न्यायालय के एकाकी न्यायाधीश द्वारा निर्णीत
न्यायमूर्ति श्रीमती एस. विमला

टिप्पणी हुई (निर्णय के अनुच्छेद ३.१ में):
"पति ने २००६ के हिन्दू विवाह मूल याचिका संख्या ९१ में समाहित, तलाक़ के लिए एक याचिका सब-कोर्ट पुदुकोट्टई की फ़ाइल पर दायर की है और उक्त याचिका पर ०८/१०/२०१० को आज्ञप्ति हुई है, जिसमें कहा गया है कि पति ने पत्नी के व्यभिचार-लीन होने का तथ्य स्पष्ट रूप से साबित कर दिया है और पत्नी ने भी आरोप का खंडन करने के लिए कटघरे में प्रवेश नहीं किया। उक्त याचिका में पति को स्थायी गुज़ारे भत्ते के रूप में रुपये १०००००/- का भुगतान करने का निर्देश दिया गया था।"

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के ८वें अनुच्छेद में):
"ऐसी परिस्थितियों में, क्योंकि व्यभिचार की बुनियाद पर तलाक़ की अप्रतियोगित आज्ञप्ति पत्नी के दावे के विरुद्ध क्रियाशील है, यह न्यायालय मानता है कि पत्नी किसी भी रखरखाव का दावा करने की अधिकारिणी नहीं है।"

बम्बई उच्च न्यायालय

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भगवत पीताम्बर बोरसे बनाम अनुसूयाबाई भगवत बोरसे

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बम्बई उच्च न्यायालय
आपराधिक रिट याचिका संख्या ७२४ (२०१६)
भगवत पीताम्बर बोरसे बनाम अनुसूयाबाई भगवत बोरसे
निर्णय तिथि: ०८ फ़रवरी २०१८
बम्बई उच्च न्यायालय के एकाकी न्यायाधीश द्वारा निर्णीत
न्यायमूर्ति श्री के. एल. वढाणे

निर्धारित हुआ (निर्णय के ८वें अनुच्छेद में):
"उपरोक्त उद्धृत मामले (अर्थात श्रीमती वनमाला बनाम श्री एच.एम. रंगनाथा भट्टा (1995 SCC (5) 299) -मनीष उदार) की टिप्पणी वर्तमान मामले के तथ्यों पर लागू नहीं है। इस मामले में, याचिकाकर्ता का यह तर्क है कि तलाक़ नागर न्यायालय द्वारा व्यभिचार के आधार पर दिया गया था और इसी लिए धारा १२५(४) और (५) के प्रावधानों के मद्देनज़र प्रतिवादी पत्नी रखरखाव की हकदार नहीं है।” (महत्त्व सन्निविष्ट)

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के १८वें अनुच्छेद में):
"...जब याचिकाकर्ता पति ने एक बार स्थापित कर दिया है कि प्रतिवादिनी पत्नी व्यभिचारपूर्ण जीवन व्यतीत कर रही थी और उस आधार पर याचिकाकर्ता को तलाक़ प्रदान किया गया है, ऐसी परिस्थिति में आवश्यक नहीं है कि वर्तमान याचिकाकर्ता पति पृथक कार्रवाई में फिर से वही बात साबित करे। समवर्ती निष्कर्षों के मद्देनज़र, यह स्थापित है कि प्रतिवादी (यानी पत्नी -मनीष उदार) व्यभिचारी जीवन व्यतीत कर रही थी।" (महत्त्व सन्निविष्ट)

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के १९वें अनुच्छेद में):
"उपरोक्त कारणों से मेरी यह राय है कि माननीय ज्ञानी न्यायिक मजिस्ट्रेट, प्रथम श्रेणी ने भरण पोषण की निरस्ति के लिए वर्तमान याचिकाकर्ता द्वारा आपराधिक प्रक्रिया संहिता धारा १२५(५) और १२७ के तहत दायर याचिका गलती से ख़ारिज कर दी है। साथ ही साथ माननीय ज्ञानीअतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, भुसावल ने आपराधिक संशोधन आवेदन संख्या १०१/२०१४ को गलती से ख़ारिज कर दिया है। इसलिए दोनों आदेश रद्द करने के पात्र हैं।

यदि आप को लेखक द्वारा लिखित एक और लेख पढ़ना चाहते हैं तो ४९८अ आक्षेप लगाने वाली पत्नियां: प्रारूपिक शिकायतकर्ता पत्नी के बारे में एक लेख पढ़िए। इस के अलावा आप सी.आर.पी.सी. अध्याय ९ के प्रलेख मात्र का हिंदी अनुवाद पढ़ सकते हैं।

You may also wish to read an article about denial of maintenance in CrPC 125 (especially on grounds of desertion). alternatively you may wish to read the bare text of Chapter 9 of the CrPC.



द्वारा लिखित
मनीष उदार द्वारा प्रकाशित।

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अंतिम अद्यतन २९ मार्च २०२१ को किया गया
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