परित्याग सहित कुछ चुने हुए आधारों पर खर्चा नामंज़ूरी के बारे में उच्चतम न्यायालय के निष्कर्ष और निर्णय

Supreme Court Judgments on Denial of Maintenance on Select Grounds including Desertion

आपराधिक प्रक्रिया संहिता धारा १२५ और परित्याग, अथवा पत्नी द्वारा व्यभिचार, अथवा परस्पर सहमति से जुदाई

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आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा १२५ की उपधारा ४ पत्नी द्वारा पति-परित्याग अथवा व्यभिचार की अवस्था में पति पर लागू होने वाली रख-रखाव के खर्चे की ज़िम्मेदारी की सीमा को बयान करती है। यह उपधारा पति और पत्नी दोनों के एक दूसरे से परस्पर सहमति से अलग हो जाने की स्थिति में भी पति पर लागू होने वाली उक्त ज़िम्मेदारी का वर्णन करती है। मोटी बात यह है कि उपधारा १२५(४) के अनुसार ऐसी तीनों ही सूरतों में पति पर लागू होने वाली रख-रखाव खर्चे की ज़िम्मेदारी शून्य है, अर्थात पति पर इन स्थितियों में से किसी भी स्थिति में रख-रखाव खर्चे की ज़िम्मेदारी लागू नहीं होती है। इस उपधारा, अर्थात सी.आर.पी.सी. धारा १२५(४) का प्रलेख निम्नलिखित है:–

“(४) ऐसी किसी भी पत्नी को अपने पति से [नियमित गुज़ारा भत्ता अथवा अंतरिम भत्ता अथवा मुकद्दमे का खर्चा, इन में जो भी प्रसंग उपयुक्त हो] लेने का अधिकार नहीं होगा जो कि व्यभिचार में लीन हो अथवा अपने पति से बिना पर्याप्त कारण के अलग रह रही हो अथवा अपने पति से आपसी सहमति से अलग रह रही हो।”

(१. खंड संख्या २, अधिनियम संख्या ५०, ईस्वी सन २००१ द्वारा ―गुज़ारा भत्ता‖ से स्थानापन्न। (२४/०९/२००१ से लागू ।))


आपराधिक प्रक्रिया संहिता अध्याय संख्या ९ समाहित स्पष्टीकरण

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धारा १२५ सी.आर.पी.सी. की उपधारा (१) में आपराधिक प्रक्रिया संहिता के अध्याय संख्या ९ के भीतर निहित 'नाबालिग' और 'पत्नी' शब्दों के अर्थ की व्याख्या है। यह व्याख्या निम्नानुसार है:–

स्पष्टीकरण। — इस अध्याय के प्रयोजनों के लिए, -
(a) ―नाबालिग‖ का अर्थ है एक व्यक्ति जो भारतीय वयस्कता अधिनियम, १८७५ (१८७५ का ९) के प्रावधानों के तहत अभी अपनी वयस्कता तक नहीं पहुंचा माना जाता है;
(b) पत्नी‖ में एक महिला शामिल है, जिसे उसके पति ने तलाक दे दिया है, या जिसने अपने पति से तलाक ले लिया है, और जिसने दोबारा शादी नहीं की है।

पत्नी द्वारा पति-परित्याग निहीत वैवाहिक परिस्थिति में प्रासंगिक उच्चतम न्यायालय निर्धारित विधान

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जैसा कि उपरोक्त से देखा जा सकता है, कुछ अन्य प्रकार की महिलाओं के अतिरिक्त वे महिलाएं जो महिलाएं अपने पति का परित्याग करती हैं ("... अथवा अपने पति से बिना पर्याप्त कारण के अलग रह रही हो ...") भी धारा १२५ के अनुसार अपने पतियों से रखरखाव का खर्चा प्राप्त करने की हकदार नहीं हैं। अनेकानेक वर्षों से और अनेकानेक बार सी.आर.पी.सी. १२५ की व्याख्या करते हुए भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस बात की पुष्टि करी है। लेकिन उसने यह भी अनेक बार साथ में जोड़ा है कि ऐसा निषेध केवल सम्बंधित पति के अपनी पत्नी के साथ विवाह-सम्बन्ध के बने रहने तक लागू है। जब इस प्रकार के परिणय-बंधन के विघटन (अर्थात समाप्ति) के बाद के काल की बात उठाई जाती है, तो सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार एक अलग ही राय जताई है। आम आदमी को सुप्रीम कोर्ट की ये राय विचित्र प्रतीत हो सकती है, लेकिन क्या करें, ये राय है ही इतनी विचित्र कि ख़ास आदमियों को भी विचित्र ही लगती है। हमारी सर्वोच्च अदालत ने कई बार घोषित किया है कि उसके विवाह के विघटन के बाद किसी भी इच्छुक पत्नी हेतु सी.आर.पी.सी. १२५ के अंतर्गत रखरखाव खर्च घोषित होने पर कोई रोक नहीं है।

ध्यान दें कि–
१) धारा १२५ के अंतर्गत प्रेषित याचिका के विरुद्ध पति-परित्याग की रक्षात्मक उपयुक्तता उसी क्षण शुरू हो जाती है जब पत्नी (धारा १२५ के अंतर्गत याचिका का सामना करने वाले) अपने पति को अकारण छोड़ के अलग रहना शुरू कर देती है। दो साल की न्यूनतम अवधि के परित्याग की वह आवश्यकता जो हिंदू विवाह अधिनियम में तलाक़ हेतु प्रेषित मुकद्दमों की वैधता के संदर्भ में देखी जाती है, उसका यहां कोई उल्लेख नहीं है।

२) सी.आर.पी.सी. धारा १२५ में पत्नी के हक में रखरखाव खर्चे का आदेश जारी होना आम बात है लेकिन इस के विपरीत एक साधारण सामान्य अपवाद विवाह के विघटन के बाद भी लागू रहता है। वह अपवाद यह है कि यदि कोई पत्नी विवाह-विच्छेद के समय एकमुश्त पूर्ण और अंतिम गुज़ारा भत्ता लेने के लिए सहमत हो जाती है या यदि उसे कोई ऐसी राशि प्राप्त होती है जो उसे प्रथागत तलाक़ के समय देय हो (यानि उस पर लागू होने वाली प्रथा के तहत देय राशि / जिस रिवाज़ की पैरवी की जा रही है उस के तहत देय राशि) तो फिर वह अपने (अब पूर्व) पति से किसी भी रखरखाव खर्च के भुगतान की पात्र नहीं रह जाती है।

पत्नी द्वारा परित्याग की अवस्था में दाम्पत्य सम्बन्ध समाप्ति आदेश पूर्व खर्चा नामंज़ूरी और दाम्पत्य सम्बन्ध समाप्ति आदेश पश्चात खर्चा नामंज़ूरी की सम्भावना की व्याख्या करने वाले उच्चतम न्यायालय के निर्णय

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उच्चतम न्यायालय द्वारा अधिनिर्णीत चार मामले वर्तमान लेख के प्रयोजन हेतु उल्लेखनीय हैं। श्रीमती वनमाला बनाम श्री एच.एम. रंगनाथा भट्टा (१९९५), रोहताश सिंह बनाम श्रीमती रामेंद्री और अन्य (१९९९), मनोज कुमार बनाम चंपा देवी (२०१४), और डॉ स्वपन कुमार बैनर्जी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और एक अन्य (२०१५)।


(i) श्रीमती वनमाला बनाम श्री एच. एम. रंगनाथा भट्टा

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इनमें से सबसे पहले मामले –पत्नी द्वारा परित्याग के कारण तलाक के घटक वाले वनमाला बनाम श्री एच.एम. रंगनाथ भट्टा– का फ़ैसला २७ जुलाई १९९५ को एक ऐसे डिवीजन बैंच ने किया था, जिसमें जस्टिस सुहास सी. सेन के साथ स्वयं भारत के मुख्य न्यायाधीश अज़ीज़ मुशब्बिर अहमदी शामिल थे।

सर्वोच्च न्यायालय
आपराधिक अपील संख्या ८३६ (१९९५ )
समतुल्य उद्धरण: 1995 SCC (5) 299; JT 1995 (5) 670; 1995 SCALE (4) 660;
श्रीमती वनमाला बनाम श्री एच.एम. रंगनाथा भट्टा
निर्णय तिथि: २७/०७/१९९५
भारत के सर्वोच्च न्यायालय की एक डिवीजन बेंच द्वारा निर्णीत
अज़ीज़ मुशब्बिर अहमदी (मुख्य न्यायाधीश)
सुहास सी. सेन (न्यायाधीश)

निर्धारित हुआ (निर्णय के तीसरे अनुच्छेद में):
"इस धारा का एक सीधा सादा पठन करने से यह पर्याप्त रूप से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उक्त उप-खंड (खंड १२५ सी.आर.पी.सी. की उपधारा (४) के संदर्भ में आसीन पीठ द्वारा यहाँ पर उल्लिखित - मनीष उदार) में मौजूद अभिव्यक्ति 'पत्नी' (के अर्थ) में एक तलाकशुदा महिला को सम्मिलित करने का विस्तारित अर्थ (सम्मिलित) नहीं है।" (महत्त्व सन्निविष्ट)

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के तीसरे अनुच्छेद में):
"प्रस्तुत संदर्भ में, फलस्वरूप, धारा १२५ की उप-धारा (४) ऐसी महिला की परिस्थिति पर लागू नहीं होती है, जो तलाकशुदा है या जिसने तलाक़ के लिए एक राजाज्ञा प्राप्त करी है"।

(ii) रोहताश सिंह बनाम श्रीमती रामेन्द्री एवं अन्य

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इस तरह के अगले मामले को न्यायमूर्ति सैय्यद साग़िर अहमद और न्यायमूर्ति देविंदर प्रताप वधवा ने २ मार्च २००० को अधिनिर्णीत किया।

सर्वोच्च न्यायालय
विशेष अनुमति याचिका (आपराधिक) २७६३ (१९९९)
समतुल्य उद्धरण: AIR 2000 SC 952; 2000 Cr. LJ 1498; 2000 3 SCC 180; JT 2000 (2) SC 553;
रोहताश सिंह बनाम श्रीमती रामेन्द्री एवं अन्य
निर्णय तिथि: ०२/०३/२०००
भारत के सर्वोच्च न्यायालय की एक डिवीजन बेंच द्वारा निर्णीत
न्यायमूर्ति श्री एस. साग़िर अहमद
न्यायमूर्ति श्री डी. पी. वधवा

निर्धारित हुआ (निर्णय के छठे अनुच्छेद में):
इस प्रावधान के अंतर्गत (खंड १२५ सी.आर.पी.सी. की उपधारा (४) के संदर्भ में आसीन पीठ द्वारा यहाँ पर उल्लिखित - मनीष उदार) एक पत्नी अपने पति से किसी भी रखरखाव भत्ते की हकदार नहीं है यदि वह व्यभिचार-लीन है या यदि उसने बिना किसी पर्याप्त कारण के अपने पति के साथ रहने से इनकार कर दिया है या यदि वे आपसी सहमति से अलग रह रहे हैं। अतैव, आपराधिक प्रक्रिया संहिता धारा १२५ की उप-धारा ४ में विचारित सभी परिस्थितियां वैवाहिक संबंधों के अस्तित्व को पूर्वकल्पित रखती हैं। प्रावधान वहां लागू होगा जहां पार्टियों के बीच विवाह-सम्बन्ध बना हुआ है, न कि जहां वह समाप्त हो गया है।” (महत्त्व सन्निविष्ट)

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के छठे अनुच्छेद में ही):
"तीनों परिस्थितियों को एक-एक कर के लेते हुए (खंड १२५ सी.आर.पी.सी. की उपधारा (४) के संदर्भ में आसीन पीठ द्वारा यहाँ पर उल्लिखित - मनीष उदार), यह ध्यान दिया जाएगा कि पहली परिस्थिति जिसके कारण पत्नी अपने पति से रखरखाव भत्ते का दावा करने की हकदार नहीं है वह उसका (पत्नी का) व्यभिचार-रत होना है। अब व्यभिचार के मायने हैं किन्हीं ऐसे दो व्यक्तियों का लैंगिक समागम होना जिन में से कोई सा (व्यक्ति) किसी तीसरे व्यक्ति से विवाहित है। ऐसा (अर्थात ऐसी अवधारणा) स्पष्टतः पति और पत्नी के बीच विवाह-सम्बन्ध के अस्तित्व को पूर्वकल्पित रखता है (रखती है), और यदि विवाह-सम्बन्ध के अस्तित्व के दौरान पत्नी व्यभिचार-रत हो जाती है तो वह आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा १२५ के अंतर्गत रखरखाव भत्ते का दावा नहीं कर सकती है।" (महत्त्व सन्निविष्ट)

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के ७वें अनुच्छेद में):
दूसरा आधार जिस पर वह रखरखाव भत्ता पाने की हकदार नहीं होगी, वह बिना किसी पर्याप्त कारण के अपने पति के साथ रहने से इनकार करने का आधार है। यह (आधार) भी पार्टियों के बीच विवाह-सम्बन्ध के अस्तित्व को पूर्वकल्पित करता है। यदि विवाह-सम्बन्ध बना हुआ है, तो पत्नी पति के साथ रहने के कानूनी और नैतिक दायित्व का वहन करती है, और (वहन करती है) वैवाहिक दायित्व का निर्वहन करने के (दायित्व का)। वह बिना किसी पर्याप्त कारण के अपने पति के साथ रहने से इनकार नहीं कर सकती है।" (महत्त्व सन्निविष्ट)

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के १०वें अनुच्छेद में):
धारा १२५ सी.आर.पी.सी. के पहले भाग के तहत रखरखाव का दावा विवाह-सम्बन्ध के अस्तित्व (के बने रहने) पर आधारित है जबकि तलाकशुदा पत्नी के द्वारा किया गया रखरखाव का दावा धारा १२५ सी.आर.पी.सी. की उपधारा (१) के स्पष्टीकरण (b) द्वारा प्रदान करी गई नींव पर आधारित है।"

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के ११वें अनुच्छेद में):
यह दलील, जैसा कि हमने पहले ही ऊपर संकेत किया है, स्वीकार नहीं की जा सकती है क्योंकि एक महिला के पास रखरखाव के दो पृथक अधिकार होते हैं। एक पत्नी के रूप में, वह भरण पोषण की हकदार होती है तब तक जब तक कि वह धारा १२५(४) में इंगित किसी भी अपात्रता से ग्रस्त नहीं होती है। एक अन्य क्षमता में, नामतः, एक तलाकशुदा महिला के रूप में, वह फिर से उस व्यक्ति से रखरखाव का दावा करने की हकदार है जिसकी वह कभी पत्नी थी।" (महत्त्व सन्निविष्ट)

रोहताश सिंह बनाम श्रीमती रामेन्द्री एवं अन्य (इलाहाबाद उच्च न्यायालय)

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उक्त सुप्रीम कोर्ट निर्णय द्वारा बनाए रखा गया निर्णय:—

इलाहाबाद उच्च न्यायालय
रोहताश सिंह बनाम श्रीमती रामेन्द्री एवं अन्य
निर्णय तिथि: २३ मार्च १९९९
पीठ एवं निर्णय प्रलेख सहित अन्य विवरण: इलाहाबाद उच्च न्यायालय की वेबसाइट पर अनुपलब्ध


सुकुमार धीबर बनाम श्रीमती अंजली दासी

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एक और दिलचस्प मामला कलकत्ता हाईकोर्ट का है। यह मामला रोहताश सिंह (उपरोक्त) के फैसले में उल्लेखित है:—

कलकत्ता उच्च न्यायालय
समतुल्य उद्धरण: 1983 Cr. LJ 36
सुकुमार धीबर बनाम श्रीमती अंजली दासी
निर्णय तिथि: २२ सितम्बर १९८२
कलकत्ता उच्च न्यायालय की एकाकी न्यायाधीश पीठ द्वारा निर्णीत
न्यायमूर्ति श्री ए. दत्ता
लेखक: ए. दत्ता

निर्धारित हुआ (निर्णय के छठे अनुच्छेद में):

"पति ने अपने प्रमाणादि में विवाह को भंग करने वाले तलाक़ के हुक्मनामे के बाद पत्नी को अपने घर ले जाने से इनकार कर दिया। संहिता की धारा १२५ के तहत एक तलाकशुदा नारी अथवा एक ऐसी नारी जिसे उसके पति ने तलाक़ दे दिया है, अपने पूर्व पति से अपने पुनर्विवाह तक रखरखाव भत्ता पाने की अधिकारिणी है, यदि वह पवित्र जीवन व्यतीत करती है। हिंदू विवाह अधिनियम, १९५५ की धारा २५ के तहत भी, वैवाहिक न्यायालय को तलाक के आदेश-पत्र के बाद पत्नी को स्थायी गुज़ारा भत्ता देने का विवेकाधिकार (अर्थात विवेकानुसार निर्धारित अधिकार) है, हालांकि (अर्थात तब भी जब) ऐसा आदेश-पत्र व्यभिचार अथवा क्रूरता अथवा परित्याग के आधार पर पारित किया गया हो, यदि (अर्थात बशर्ते) वह अविवाहित रहती है और तब तक जब तक वह पवित्र जीती है।" (महत्त्व सन्निविष्ट)

(iii) मनोज कुमार बनाम चंपा देवी

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पत्नी द्वारा पति-परित्याग के आधार पर दिए गए विवाह-समाप्ति आदेश से जुड़े एक अन्य भरण-पोषण के मामले का सुप्रीम कोर्ट की एक पूर्ण पीठ द्वारा फ़ैसला किया गया था। पीठ पर बैठे न्यायाधीश थे भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर, न्यायमूर्ति धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति संजय किशन कौल। वह मामला और जिस मामले के निर्णय को उक्त मामले में बरकरार रखा गया था, दोनो को यहां रेखांकित किया गया है।

सर्वोच्च न्यायालय
विशेष अनुमति याचिका (आपराधिक) संख्या १०१३७/२०१५
मनोज कुमार बनाम चंपा देवी
निर्णय तिथि: ०६/०४/२०१७
भारत के सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ द्वारा निर्णीत
CJI जगदीश सिंह खेहर
न्यायमूर्ति डॉ. डी. वाई. चंद्रचूड़
न्यायमूर्ति श्री संजय किशन कौल

निर्धारित हुआ (निर्णय के दूसरे अनुच्छेद में):
"२. प्रतिवादित आदेश को पढ़ लेने के बाद, हम संतुष्ट हैं, कि वह इस न्यायालय द्वारा प्रेषित दो निर्णयों पर आधारित है, पहला, वनमाला (श्रीमती) बनाम एच. एम. रंगनाथा भट्टा, (1995) 5 SCC 299, और दूसरा, रोहताश सिंह बनाम रमेन्द्री (श्रीमती) एवं अन्य, 2000(3) SCC 952. आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा १२५, जिस में उस की उपधारा १ के अधीन व्याख्या सम्मिलित है, इस न्यायालय द्वारा पिछले २ दशकों से निरंतर समान रूप से स्पष्टीकृत करी गयी है।" (महत्त्व सन्निविष्ट)

"उच्च न्यायालय ने प्रतिवादित आदेश को पारित करते हुए उपरोक्त निरंतर समानरूपी राय का अनुगमन किया है।" (महत्त्व सन्निविष्ट)

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के तीसरे अनुच्छेद में):
"३. यहां ऊपर दर्ज़ किए गए कारणों से, संविधान के अनुच्छेद १३६ के अंतर्गत अपने अधिकार क्षेत्र के अभ्यास में, हमें प्रतिवादित आदेश में हस्तक्षेप करने का कोई औचित्य नहीं मिलता है।"

मनोज कुमार बनाम चंपा देवी (हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय)

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उक्त सर्वोच्च न्यायालय निर्णय में बनाये रखा गया प्रतिवादित निर्णय:

हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय
आपराधिक विविध याचिका (मुख्य) संख्या २३० (२०१४)
मनोज कुमार बनाम चंपा देवी
निर्णय तिथि: ०९ अप्रैल, २०१५
हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय की एकाकी न्यायाधीश पीठ द्वारा निर्णीत
न्यायमूर्ति श्री तरलोक सिंह चौहान

निर्धारित हुआ (निर्णय के ७वें अनुच्छेद में):
७. विडंबना यह है कि रखरखाव का दावा करने के लिए प्रतिवादिनी के माननीय ज्ञानी सलाहकार ने भी रोहताश सिंह (उपरोक्त) के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले पर विश्वास रखा है, लेकिन फिर जैसा कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कहा गया है, क्योंकि विवाह-विच्छेद आदेश-पत्र प्रतिवादिनी द्वारा पति-परित्याग के आधार पर पारित हुआ था, इसीलिए वह आदेश-पत्र के पारित होने से पहले किसी भी रखरखाव की हकदार नहीं होगी।" (महत्त्व सन्निविष्ट)

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के ८वें अनुच्छेद में):
८. तदनुसार, वर्तमान याचिका आंशिक रूप से अनुमति-प्राप्त घोषित करी जाती है और माननीय ज्ञानी अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, सुंदरनगर, जिला मंडी द्वारा पारित आदेश इस हद तक संशोधित किया जाता है कि प्रतिवादिनी केवल ०४/०९/२००८, जब विवाह-समाप्ति का आदेश-पत्र पारित किया गया था, तिथि के प्रभाव से भरण-पोषण की पात्र है। जहाँ तक माननीय सत्र न्यायाधीश मंडी द्वारा पारित आदेश का प्रश्न है, वह अन्यथा (अन्यथा? –मनीष उदार) ०६/११/२००९, जिस तारीख पर आवेदन प्रेषित किया गया था, से बढ़ाए गए रखरखाव का प्रावधान करता है, और फलस्वरूप हस्तक्षेप का पात्र नहीं है क्योंकि वह निस्संदेह विवाह-विच्छेद आदेश-पत्र के बहुत बाद पारित किया गया है।” (महत्त्व सन्निविष्ट)

(iv) डॉ. स्वपन कुमार बैनर्जी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एवं एक अन्य

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एक ऐसा चौथा मामला जो परित्याग के आधार पर होने वाली विवाह-समाप्ति के बाद भी चलने वाली कानूनी लड़ाई से गुज़र रहा था, २०१९ में निर्णीत हुआ।

सर्वोच्च न्यायालय
आपराधिक अपीलें संख्या २३२-२३३, वर्ष २०१५
डॉ. स्वपन कुमार बैनर्जी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एवं एक अन्य
निर्णय तिथि: १९/०९/२०१९
भारत के सर्वोच्च न्यायालय की एक डिवीजन बेंच द्वारा निर्णीत
न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता
न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस

निर्धारित हुआ (निर्णय के छठे अनुच्छेद में):
श्री देबल बनर्जी ने आग्रह किया कि इस मामले पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। हम दो कारणों से उनके साथ एकमत नहीं हैं। सबसे पहले, पहले दो निर्णयों में लिए गए दृष्टिकोण की पुष्टि तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ ने की है और इसलिए, हम इसे एक बड़ी पीठ के पास नहीं भेज सकते हैं (अर्थात उस के सुपुर्द नहीं कर सकते हैं)।

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के ७वें अनुच्छेद में):
"इसके अतिरिक्त भी, यह नज़रिया इस न्यायालय द्वारा निरंतर समान रूप से लिया गया है और उक्त नज़रिया सी.आर.पी.सी. के लिखित स्वरुप और उसकी भावना दोनों के अनुरूप है।" (महत्त्व सन्निविष्ट)

साथ ही निर्धारित हुआ (निर्णय के ११वें अनुच्छेद में):
यह दिखाने के लिए कोई प्रमाणादि प्रेषित नहीं किये गए हैं कि पत्नी की आय कितनी है या पत्नी कहां काम कर रही है। इस तरह के प्रमाण प्रेषित करना पति पर निर्भर था। इस तरह के किसी भी प्रमाण के अभाव में कोई ऐसी प्रकल्पना नहीं उठाई जा सकती है कि पत्नी खुद का निर्वाह करने हेतु पर्याप्त राशि कमा रही है।” (महत्त्व सन्निविष्ट)

क्या उच्चतम न्यायालय ने (पत्नी द्वारा परित्याग के मामलों में विवाह-विच्छेद आदेश पश्चात् भरण पोषण खर्चे के सन्दर्भ में) सी.आर.पी.सी. १२५ की सही व्याख्या करी है?

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ऐसा प्रतीत होता है कि सुप्रीम कोर्ट ने उपरोक्त ४ निर्णयों में गलती की है। यह मुख्य रूप से इसलिए है कि ऊपर सूचीबद्ध ४ सुप्रीम कोर्ट मामलों में पीठासीन चारों खंडपीठों में से किसी भी पीठ ने सी.आर.पी.सी. धारा १२५ के एक अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्से की (अपने द्वारा लिखे गए निर्णयों में हुई) अवहेलना का कारण नहीं समझाया है (इनमें से ३ पीठों ने इसका उल्लेख भी नहीं किया है), अर्थात सी.आर.पी.सी. के अध्याय संख्या ९ का वह स्पष्टीकरण जो धारा १२५ (१) सी.आर.पी.सी. का अंग है, जो इस प्रकार है: :–


स्पष्टीकरण। — इस अध्याय के प्रयोजनों के लिए, -

            x x x             x x x             x x x

(b) पत्नी‖ में एक महिला शामिल है, जिसे उसके पति ने तलाक दे दिया है, या जिसने अपने पति से तलाक ले लिया है, और जिसने दोबारा शादी नहीं की है।

यह सच है कि इस हिस्से को सुप्रीम कोर्ट के ऊपर सूचीबद्ध फ़ैसलों में से चौथे फ़ैसले में, अर्थात् डॉ स्वपन बनर्जी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एवं एक अन्य में उद्धृत किया गया है, लेकिन अदालत ने उक्त फ़ैसले में इस लेखांश को विचाराधीन नहीं लिया है। इसके अलावा, हालांकि यह वनमाला में घोषित किया गया है कि "प्रस्तुत संदर्भ में, फलस्वरूप, धारा १२५ की उप-धारा (४) ऐसी महिला की परिस्थिति पर लागू नहीं होती है, जो तलाकशुदा है या जिसने तलाक़ के लिए एक राजाज्ञा प्राप्त करी है", लेकिन ऐसे निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए अदालत द्वारा दिया गया तर्क त्रुटिग्रस्त है। इस तर्क में सी.आर.पी.सी. के अध्याय संख्या ९ के भीतर "पत्नी" शब्द के अर्थ के बारे में मौजूद व्याख्या की समीक्षा करना तो दूर की बात, आसीन पीठ ने उक्त व्याख्या को विचाराधीन ही नहीं लिया।

यह मानना पड़ेगा कि जब सी.आर.पी.सी.के पूरे अध्याय संख्या ९ के अंदर (अर्थात सी.आर.पी.सी. धारा १२५, १२६, १२७, और १२८ में) जहाँ जहाँ भी "पत्नी" शब्द का उपयोग किया गया है वहां वहां बिना किसी अपवाद के इस शब्द ("पत्नी") के अर्थ में वह महिला शामिल है जिसे उसके पति द्वारा तलाक़ दिया गया है, अथवा जिसने अपने पति से तलाक़ ले लिया है, तो हमारे ऊपर यह लाज़मी हो जाता है कि हम जब जब भी सी.आर.पी.सी. धारा १२५ के किसी ऐसे भाग को पढ़ें जिसमें "पत्नी" शब्द का प्रयोग किया गया है तब तब बिना अपवाद हर उस भाग में इस शब्द के अर्थ को उक्त विस्तारित परिभाषा के अनुरूप ही समझें। फलस्वरूप उपधारा १२५(४) के प्रलेख को निम्नलिखित रूप से पढ़ना आवश्यक हो जाता है :–


(४) ऐसी किसी भी पत्नी (जिस में वह महिला शामिल है जिसे उसके पति द्वारा तलाक़ दिया गया है, अथवा जिसने अपने पति से तलाक़ ले लिया है) को अपने पति से नियमित गुज़ारा भत्ता अथवा अंतरिम भत्ता अथवा मुकद्दमे का खर्चा, इन में जो भी प्रसंग उपयुक्त हो, लेने का अधिकार नहीं होगा, जो कि व्यभिचार में लीन हो अथवा अपने पति से बिना पर्याप्त कारण के अलग रह रही हो अथवा अपने पति से आपसी सहमति से अलग रह रही हो।

जैसा कि पूर्वगामी से स्पष्ट है, सी.आर.पी.सी. १२५ का प्रलेख भी और उसकी भावना भी, दोनों ही तलाक के बाद भी पति का परित्याग करने वाली पत्नी को रखरखाव का भुगतान करना वर्जित करते हैं।

इस स्थान पर यह उचित आपत्ति जताई जा सकती है कि कोई महिला जो कि कभी किसी पुरुष की पत्नी थी, जब ऐसे पुरुष की पत्नी नहीं रह जाती है (अर्थात तलाक़ के बाद), तब उस का पत्नी ही की क्षमता में उस पुरुष का परित्याग करने का सवाल ही कहाँ उठता है, और फलस्वरूप ऐसा कैसे कहा जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने उन ४ निर्णयों में कोई गलती की है? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि सवाल तो किसी भी युगल के विवाह सम्बन्ध की समाप्ति के बाद भी महिला को पुरुष की पत्नी कह के संबोधित करने का नहीं उठता है। लेकिन यहां तो कानून में अभिव्यक्त रूप से कहा गया है कि पत्नी शब्द में वह महिला भी शामिल है जिसे या तो तलाक़ दे दिया गया है या जिसने फ़ैसला ए तलाक़ प्राप्त किया है। यदि हम एक बेतुके प्रस्ताव से शुरुआत करते हैं तो फिर हम बेतुके निष्कर्षों पर समाप्ति करने को बाध्य हो जाते हैं, और कोई भी दूसरी अपेक्षा करना एक गलती है, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने किया है।


प्रस्तुत लेख के अतिरिक्त आप सी.आर.पी.सी. धारा १२५ अंतर्गत अभ्यस्त व्यभिचारिणी पत्नी को खर्चा नामंज़ूरी के बारे में लिखित लेख भी पढ़ सकते हैं। इस के अलावा आप सी.आर.पी.सी. अध्याय ९ के प्रलेख मात्र का हिंदी अनुवाद भी पढ़ सकते हैं।

You may also wish to read an article about denial of maintenance in CrPC 125 on grounds of adultery. Alternatively you may wish to read the bare text of Chapter 9 of the CrPC.



द्वारा लिखित
मनीष उदार द्वारा प्रकाशित।

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अंतिम अद्यतन २३ अप्रैल २०२१ को किया गया
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